संत का समाधी लेना
एक दिन संत बोंदरु बाबा एकान्त में बैठे प्रभु से प्रार्थना करने लगे। मन ही मन ईश्वर से विनती करने लगे- हे कृपा निधान, आपकी माया के वशीभुत होकर अब अधिक मैं इस असारसंसार में नही रहना चाहता । मैं तो आपके चरणों के अतिरिक्त ब्रह्मपद को भी नहीं चाहता । प्रभु !! मैं इस संसार में रहकर भक्ति करने पर भी सदा ही अपने सांसरिक कार्यों के लिए आपको ही कष्ट देता रहता हूँ। हे दीनानाथ मुझे क्षमा करना। बाबा, ईश्वर का चिन्तन कर ही रहे थे कि कुछ शिष्य व भक्त उनसे मिलने को आपहुँचे | बाबा के चरण छूए और सामने बैठ गये। संत बोंदरु बाबा ने उनसे आने का प्रयोजन पुछा-तो भक्तों ने हाथ जोड़कर निवेदन किया, कहा- हमको गुरु पूर्णिमा (आसाढ़ पूर्णिमा) मनाना है; अत: हम आपसे आज्ञा लेने आए है। संत ने कहा-इसमें मुझे क्या आपत्ति हो सकती है ? ये आप लोगों की श्रद्धा है, मनाओ ! भक्तों और शिष्यों ने बहुत ही धूम धाम से गुरु पूर्णिमा का आयोजन किया । हजारों दर्शनार्थी बाबा से मिलने और प्रसादी पाने पहुँचे ।
इस गुरु पूर्णिमा के उत्सव में संत बोंदरु बाबा ने यह भी घोषणा कर दी कि आगामी जन्माष्टमी पर्व भी हम धूम धाम से ही मनायेंगे। इसके साथ ही दूसरे दिन गोगा नवमी को हमें समाधी लेना है। बस, अब हम अधिक दिन इस असार-संसार में नहीं रहना चाहते। भक्त राज की यह घोषणा सुनकर कुछ भक्त तो रोने ही लग गये और कुछ बाबा की जय-जयकार करने लगे। संत प्रवर बोंदरु बाबा की समाधी दिवस सुनिश्चित होने पर नित्य ही संत के आँगन में भक्तों का तांता लगने लगा। नित्य ही भक्त लोग भजन करने लगे। नित्य ही संत सत्संग का प्रसाद शिष्यों और भक्तों को मिलने लगा। भक्त की जय-जय कार के स्वर गुंजने लगे। ग्राम नागझिरी और नागझिरी के आस-पास के गाँवों के लोगों का रोज ही हुजुम संत के दर्शन को आने लगा।
संत भी आए हुए लोगों को बड़े प्रेम से बैठाते, समझाते और अपने ज्ञान के भंडार से थोड़ा-थोड़ा प्रसाद उन्हें भी चखाते । कुछ लोग तो संत के चरणों में लोटते, रोते और उन्हें समाधी न लेने तक की सलाह दे देते । तबसंत उन्हें समझाते और कहते सुनो, जो मनुष्य आज धनवान है, कल वही कंगाल हो जाता है, जो आज हष्ठ-पुष्ठ और निरोग है, कल वही रोगों का शिकार हो जाता है व अचानक जीवन को खो दता है। इसीलिए महात्माओं ने इस संसार को नश्वर कहा है। संसार जो है यह स्थिर नहीं है, सदा बदलता रहता है । जो जन्म लेता है वह अवश्य ही एक दिन मरता है ।
जो मरता है, उसे अवश्य ही जन्म लेना पड़ता है। आत्मा अमर है, वह कभी नहीं मरती, केवल शरीर बदलता है, गीता मे कहा गया है कि इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग भी नहीं जला सकती, जल भी नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकता। क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य है, यह अक्लेद्य और नि:सन्देह अशोष्य है तथा यह आत्मा नित्य सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है। यह आत्मा अव्यक्त है। यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकार रहित कहा जाता है। इससे हे भक्तों इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर तुम शोक मत करना। आप सब लोग मेरे शरीर त्यागने से दु:खी न होना । मेरी आत्मा हमेशा तुम्हारे साथ रहेगी। (संत ने सत्य ही कहा था, कई भक्तों को उनके दर्शन हो चुके है।) संत की ऐसी ज्ञान-मयी वाणी सुनकर भक्तों ने जय-जय कार से आसमान गुंजायमान कर दिया। संत के आँगन में रोज भजन कीर्तन होने लगे। गुरु पूर्णिमा से जो रात्री भजन होने लगे तो भक्तों ने गोगा नवमी तक का संकल्प ही ले लिया, नित्य रात्री में भजन करने । साथ ही कुछ लोगों ने राय दी, कि क्यों न हम श्रावणी राखी का त्यौहार श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर मनाये जिससे हमारी बहन-भानजीयाँ हमारे ग्राम नागझिरी में आ जाए और जन्माष्टमी के साथ-साथ संत के समाधी लेने के उत्सव में भी सम्मिलित हो सके । गाँव के सयानों एवं बुजुर्गो ने बड़ी ही सरलता से इस बात को स्वीकार कर लिया। तब से आज तक गुरु पूर्णिमा से लगातार जन्माष्टमी तक संत के दरबार में (मढ़ में) रोज शाम को झांझ-मृदंग के साथ भजन गाये जाते है तथा राखी (रक्षा बंधन) का त्यौहार, श्रावणी पूर्णिमा पर न मनाकर जन्माष्टमी पर ही कृष्ण जन्म उत्सव के साथ ही मनाया जाता है। हजारों, लाखों भक्तों-शिष्यों एवं दर्शनार्थीयों का ग्राम नागझिरी में जन्माष्टमी की शाम से जमावड़ा प्रारंभ हो गया। सुबह होने के साथ ही प्रत्येक घर से मंगल आरतियाँ सजाई गई। हर घर के दरवाजे पर बन्दनवार, तोरण आदि बाँधे गये, दरवाजों पर दिये जलाये गये। गलियों में भी आम के पत्तों आदिसे तोरण एवं फूल मालाएँ बाँधी गई।
नागझिरी का हर घर-हर परिवार उत्सव से आनन्दीत हो रहा था। बाबा के भक्त व शिष्य तो मन ही मन खुब रो रहे थे, लेकिन बुजुर्गों ने सलाह मशविरा करके सबको हिदायत दे दी कि बाबा की समाधी के वक्त कोई रोयेगा नहीं, वरना बाबा का मन दुखी होगा। इसलिए कोई खुलकर आँसु नहीं बहा रहे थे। बल्कि दौड़-दौड़कर उत्सव की तैयारियों में भाग ले रहे थे। आखिर वह समय भी आगया, जब संत बोंदरु बाबास्नान आदि से निवृत होकर, हाथ में झण्डा (निशाण) लिए घर से बाहर निकले । भक्तों ने फूल मालायें उनके गले में डाल दी। प्रत्येक घर से माताएँ एवं बहने अपनी आरती संजोयें, दिपक जलाएँ, संत को तिलक लगाने एवं आरती उतारने लगी। जिस मार्ग से समाधी स्थल तक जाना था, वहाँ तक मार्ग में फूल बिछा दिए गये। कुँवारी कन्याएँ मार्ग के दोनों ओर सिर पर कलश लिए चलने लगी। शिष्य और भक्त लोग झांझ-मृदंग बजाते हुए संत के साथ-साथ भजन गाते हुए चलने लगे। हजारों महिलापुरुष, बाल-बच्चे, बुढे-जवान सभी संत के साथ-साथ जुलुस बनाये समाधी स्थल याने गायगोहया की ओर चलने लगे। कुछ लोगों ने संत के ऊपर चादरें तान कर छांव बनाते चल रहे थे। दूर-दूर तक के गाँवों के महिला-पुरुष अपने-अपने बैल गाड़ियों पर बाबा के दर्शन करने के लिये आ गये थे। बाबा के निवास से समाधी स्थल तक एवं समाधी के पास वाले मैदान में अथाह जन समूह उमड़ पड़ा था। धीरे-धीरे बाबा का जुलुस चलता हुआ गायगोहयायाने समाधी स्थल तक पहुँचा। हर आदमी बाबा के अन्तिम दर्शन करने के लिए लालायित था और उतावला भी। सब लोगों की उपस्थिति में बाबा ने हाथ जोड़कर समाधी की पाँच परिक्रमाएँ की सामधी के हाथ जोड़े। फिर ओटले पर चढ़े, दोनों हाथ उठाकर उपस्थित जन समुदाय को आश्वासन दिया एवं सब को आशीर्वादस्वरुप हाथ जोड़े और बैठ गये। उपस्थित भजन-मण्डली के साथ एक सुमधुर भजन गाया। फिर सम्पूर्ण जनता को सुनाकर अपना अंतिम उपदेश देने लगे। संत कहने लगे भक्तों, सुनों! संसार में रहकर जो भगवान की भक्ति करता है, तो समझ लो वह दो धारी तलवार पर ही चल रहा है। एक ओर उसे लुभावनी श्याम सलोने की मूरत आकर्षित करती है और भक्त ईश्वर की भक्ति में आकण्ठ डुबना चाहता है तथा दूसरी ओर माता-पिता, भाईबहन, पत्नि-पुत्र आदि का मोह अपने साथ बाँधने का प्रयत्न करता है। जो मनुष्य संसार के माया-मोहसेराजाजनक की तरह निर्लेप होकर भक्तीरस का पान करता है, वही सच्चा भगवत प्रेमी होता है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है-जो पुरुष इन्द्रियों को भली प्रकार वश में करके मन बुद्धि से परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरुप और सदा एक रस रहने वाले, नित्य अचल, निराकार, अविनाशी, सच्चिदानन्द ब्रह्म को निरन्तर एकी भाव से ध्यान करते हुए भजते है। वे सम्पूर्ण प्राणियों के हित में रहते हुए और सब में समान भाव वाले योगी होकर ईश्वर को प्राप्त कर लेते है। इस संसार में जब तक हमारा जीवन है, तब तक जितना हो सके हमें दूसरों की भलाई करने में ही अपना समय लगाना चाहिए। जहाँ तक हो सके किसी का दिल नहीं दुखाना चाहिए। स्वयं का कमाया खाना चाहिए। दूसरों का धन नहीं हड़पना चाहिए। अपनी मेहनत से ज्यादा पाने की आस नहीं करना चाहिहए। कभी भी कर्म से विमुख नहीं होना चाहिये, कर्म तो करते ही रहना चाहिए। परन्तु फल की इच्छा, सिर्फ भगवान पर छोड़ देना चाहिए। जब तक जीवन रहे तब तक सांसरिक रिश्तों को निभाते रहना चाहिए। जब तक हमारे से बनता रहे तब तक दूसरों की मदद अवश्य करते रहें । द्वार पर आये हए याचक को अपनी श्रद्धानुसार कुछ भी देना ही चाहिए।
भगवान के नाम और गुणों का श्रवण, कीर्तन, मनन तथा श्वाँस के द्वारा जप और भगवत प्राप्ति विषयक शास्त्रों का पठन-पाठन इत्यादि चेष्टाएँ भगवत प्राप्ति हेतु बारबार करना चाहिए। लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्ति को त्यागकर एवं शरीर और संसार में अहंता ममता से रहित होकर केवल एक परमात्मा को ही परम आश्रय, परमगति और सर्वस्व समझना चाहिए। अनन्य भाव से अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेम पूर्वक निरन्तर भगवान के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरुप का चिंतन करते रहना चाहिए। भगवान का भजन, स्मरण रखते हुए भी कर्तव्य कर्मों का नि:स्वार्थ भाव से केवल परमेश्वर के लिए आचरण करना चाहिए। जै श्री कृष्ण! ॐ हरिः .....हरि.....हरि...... कहते हुए संत बोंदरु बाबा ध्यानस्थ हो गये। _ भक्त की पालथी मारे लुभावनी मूरत को जनता देखती ही रह गई। लोग जय-जयकार करने लगे और कोई भक्त झांझ-मृदंग बजाकर गाने लगे। समय बितता गया । लगभग घंटा भर पश्चात् संत को समाधी अवस्था से जगाने का प्रयत्न करने लगे, तो पता लगा संत तो इस देह में है ही नहीं। संत की आत्मा विदेही हो चुकी है और तन विआत्मा । जय-जय कार के गंगन चूंभी नारों के साथ संत की देह को भक्तों ने समाधी में ससम्मान उतारा और ऊपर से समाधी के द्वार पर फर्शी लगा दी तथा उसके ऊपर से “पदचिन्ह" (पगल्या) रख दिए गये। अब पूजन करने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी।
सब लोग अपने-अपने ढंग से पूजन करने लगे और भक्त लोगों ने बाबा द्वारा लाया गया निशाण (झण्डा) समाधी के ऊपर चढ़ा दिया (टाँग दिया)। कई दिनों तक गाँव के एवं आस-पास गाँवों के लोग भजन-पूजन करने को आते रहे। एक बात और बता दूँ-संत बोंदरु बाबा ने जिस दिन समाधी ली थी, उस दिन बड़वानी के राजा मोहनसिंह भी और रामसिंह भी जिनकी मृत गाय को जिलाया था, वे भी आये थे। राजासाहब ने संत की समाधी पर चाँदी का छत्र चढ़ाया था एवं भाई रामसिंह ने फूलों के हार संत के गले में भी पहिनाएँ थे एवं समाधी पर भी चढ़ाये थे। _ इस दिन संत की समाधी के गादी महंत बाबा बोंदरु के मामाजी श्री अमरसिंह जी नियुक्त कर दिये गये। मामाजी ने भी सहर्ष पूजा का भार अपने ऊपर ले लिया। संत की समाधी की सेवा पूजा अभी भी गादी के महंत ही सम्भालते है। संत बोंदरु बाबा ने समाधी विक्रम सम्वत् 1790 में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की नवमी याने गोगा नवमी को ली थी। तब उनकी आयु मात्र 25 वर्ष थी। इतनी कम उम्र में सच्चे योगी और सिद्ध महात्मा बन गये थे। आज भी वर्ष में एक दिन गोगा नवमी को संत बोंदरु बाबा की समाधी पर मेले का आयोजन होता हैं। इसी दिन गादी के महन्त द्वारा लाए गये आम के फल (कैरियाँ) बाबा की समाधी पर छत्र के पास लटकाई जाती है तथा आज भी संत की कृपा से नि:संतान महिलाएँ श्रद्धा से आम फल (प्रसाद) खाती है, तो उनके यहाँ अवश्य संतान सुख प्राप्त होता है । गुरु पूर्णिमा उत्सव आज भी बाबा की समाधी पर मनाया जाता है तथा यही से सवा महिने तक हर रोज रात्री में महंत के घर पर झांझ-मृदंग बजाकर भक्त लोग भजन गाते है। जन्माष्टमी के रोज रास मण्डल का आयोजन होता है, जो रात्री भर चलता है। इसी दिन गादी महंत आरती संजोकर किसी भी आम वृक्ष के नीचे जाकर आमफल विधि-विधान से पूजा-पाठ कर लाते है। यह आमफल किसी भी भक्त या अन्य श्रद्धावन लोगों को भी मिल जाते है तो वे भी संत की समाधी पर चढ़ाने आ जाते हैं। ये सभी फल नि:संतान महिलाओं को प्रसाद रुप में खिलाएँ जाते है। सुबह गोगा नवमी याने संत के समाधी दिवस पर सुबह से ही मेला भर जाता है। भक्त लोग गाते बजाते बाबा की समाधी पर बारह बजे दिन के लगभग निशान चढ़ाने जाते हैं। इसी समय आस पास के गाँवों के फड़ (गाने वालों के समुह) भी आ जाते है । गाते बजाते ही समाधी की परिक्रमा करते हैं । निशान चढ़ाते है । दर्शन। पूजन करते हैं। इसी समय दर्शनार्थीयों और मेले की रौनक देखने के काबिल होती है। मेले के दिन मन्नत उतारने वालों की भी दिन भर भीड़ लगी रहती है वैसे तो साल भर भी लोग अपनी सुविधानुसार आते रहते है।
* जय संत बोंदरु बाबा *
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