संत का ननिहाल आगमन
बालक बोंदरु गुरुमाई देवाबाई और गुरु रामदासजी के आश्रम नर्मदा किनारे होशंगाबाद में रहकर बड़ी लगन से विद्याध्ययन करने लगे। आश्रम के सभी शिष्यों में सबसे का आयु के होने के कारण बालक बोंदरु पर गुरुमाई देवाबाई और गुरु रामदास जी की कुछ अधिक ही कृपा दृष्टि थी। उस समय लिखने-पढ़ने के साथ-साथ संतो और भक्तों के जीवन चरित्र सुनाना, ईश्वर के अवतारों से सम्बन्धित कहानियाँ सुनाना आदि के द्वारा शिष्यों का ज्ञान बढ़ाया जाता था। इसके साथ ही जीवन यापन के तरीके भी सिखाए जाते थे। पानी भरना, लकड़ी लाना, भोजन बनाना, झाड़ना-बुहारना से लगाकर खेती किसानी के गुर भी सिखाए जाते थे। परन्तु इन सब कामों से बालक बोंदरु को अलग ही रखा जाता।
बालक बोंदरु के दिल में गुरु माई एवं गुरु के प्रति अगाध श्रद्धा थी, अत: वे स्वयं ही दौड़-दौड़कर गुरु की आज्ञा पालन करते थे। विद्याध्ययन भी अत्यन्त मन लगाकर करते थे । गुरु का वरदहस्त होने एवं अत्यन्त लगन होने से बालक बोंदरु शीघ्र विद्याध्ययन में निपुण हो गये । छोटी आयु मात्र 9-10 वर्ष की में ईश्वर के प्रति उनमें अगाथ श्रद्धा जाग गई। वे ईश्वर को प्राप्त करने, उनके दर्शन पाने के लिए लालायित रहने लगे। अवकाश के समय एकान्त में बैठकर गुरु द्वारा सिखाएँ गए मंत्रों का लगन के साथ जाप करते और ईश्वर से करुण पुकार करते । अपनी माता राधाबाई की भी उन्हें बहुत याद आती तो उनके लिए भी आंसु बहा लिया करते।
उधर माता राधाबाई भी अपने पुत्र की याद करके उदास हो जाया करती, परन्तु वे यह सोचकर की उनका पुत्र पढ़-लिखकर विद्वान बन जावेगा, अपने आंसुरोक लिया करती थी। बालक बोंदर की शिक्षा दिक्षा जब समाप्त हो गई तो माता राधाबाई, गुरु माई और गुरु का आशीर्वाद लेकर बोंदरु को घर ले आई।
बालक बोंदरु नित्य सुबह-शाम मंदिरों में जाकर देवी-देवताओं की पूजा अर्चना करते, दर्शन करते एवं भजन-कीर्तन में सम्मिलित होते । अगर कहीं पूराण भागवत होती तो बड़े ध्यान से भागवत कथा सुना करते थे। भजन कीर्तन में झांझ आदि बजाया करते और भजन गाया करते थे।
एक दिन बालक बोंदरु माँ को बिना बताएँ ही जंगल की ओर चल दिए । भला जिसका मन ईश्वर प्राप्ति के लिए उत्कट लालायित हो, वह इस संसार बन्धन में कैसे रह सकता है । बैतुल जिले के भौरागढ़ के बियाबान जंगल में जाकर आसन जमाया और भगवान के ध्यान में तल्लीन किया और फिर आकर भगवान का ध्यान करने बैठ गये। इस प्रकार जब भी ध्यान टुटता, जंगल के फूल-फल खा लिया करते, नाले में स्नान करते और फिर भगवान के ध्यान में बैठ जाते। ये उनका नित्य का नियम बन गया था। इधर माता राधाबाई पुत्र के घर न आने से बहुत ही परेशान हो गई। लोगों से अपने पुत्र के बारे में पुछती रहती और आंसुबहाया करती। जब महीने दो महीने हो गये तो उधर बालक बोंदरु का भी मन उचाट होने लगा। माँ का याद आने लगी। कहते है कि दिल से दिल को राहत होती है।
माँ के दिल की करुण पुकार बालक बोंदरु को सुनाई देने लगी। सोचने लगे, मैं माँ को बिना बताए आ गया हुँ, माँ अत्यन्त परेशान होती होगी। तभी तो मुझकों उनकी याद बार-बार आती है और ध्यान उचट जाता है। माँ को बता आऊँ, फिर वापस आकर तप साधना करुंगा। ऐसा सोच कर बालक बोंदरु वापस अपनी माँ के पास आ गये। माँ ने जब बालक बोंदरु को वापस आया हुआ देखा, तो खुशी से उसे गले लगा लिया और रोपड़ी। कुछ दिनों बाद माता राधाबाई ने सोचा की अगर बोंदरु फिर से जंगल में तपस्या करने चला गया तो मैं यहाँ अकेली रह जाऊँगी । अत: मुझे बोंदरु को लेकर अपने पीहर नागझिरी चले जाना चाहिए। जिससे वहाँ भाईयों का सहारा मिल जायेगा। ऐसा सोचकर माँ अपने बेटे बोंदरु को लेकर नागझिरी जिला पश्चिम निमाड़ (खरगोन) आ गई।
नागझिरी में एक छोटे से खपरैल के कच्चे मकान को अपना निवास स्थान बनाया। यहाँ माता-पुत्र दोनों मिलकर लोगों के यहाँ धाड़की मजदूरी करते और अपना जीवन यापन करने लगे। जिस समय नागझिरी में रहने आये थे, उस समय बालक बोंदर की आयु मात्र 11 वर्ष की थी। बालक बोंदर की तपोभूमि भौरागढ़ जिला बैतुल में आज भी एक ओटला बना है, वहाँ आस-पास के निवासी उसे सभी जानते है कि यह बोंदरु बाबा का तपोस्थल है। अतः ओटले पर पूजा अर्चना होती रहती है, संत बोंदरु बाबा के नाम से।
* जय संत बोंदरु बाबा *
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