संत का जीवन | Sant Ka Jeevan | Bondaru Baba Ka Jeevan

  संत का जीवन 

जिस समय की यह बात है, उस समय हमारे देश में मुगल वंश के अंतिम सम्राट औरंगजेब की मृत्यु हो गई थी तथा उनका कोई भी उत्तराधिकारी योग्य नहीं था, इसलिए देश के टुकड़े-टुकड़े होने लगे थे। हर जमींदार अपना अलग राज्य कायम कर, अपने आपकों वहाँ का राजा घोषित करने लगा था। ऐसी हालत में कोई भी शासक गरीबों की सुध लेने वाला नहीं था। सब अपने-अपने ढंग से जीवन यापन कर रहे थे। मजदूरों की मजदूरी मात्र चार आने, छ: आने (एक रुपया 16 आने) हुआ करती थी। उसी में परिवार का भरण-पोषण करते थे। __संत बोंदरु और माता राधाबाई भी नित्य मजदूरी करने जाते व अपना जीवन यापन किया करते थे। गौ सेवा तो संत बोंदर का नित्य का नियम था। चाहे मजदूरी करने जाते या न जाते, परन्तु गायों के लिए घास जरुर लाते थे। इनके पास तो कोई गाय पाली हुई नहीं थी। परन्तु गाँव की गायों के निकलने के रास्ते (गोह्या) पर एक बोझा (भारा) घास अवश्य डालते थे। मजदूरी करने जाते तो घर आते समय घास का बोझा लाते और गोहया पर डाल देते । 

गायें शाम को घर लौटते समय उस घास को खाती थी। अगर किसी दिन मजदूरी करने नहा जाता दिन दो बोझा घास लाते । एक बोझा गोहया पर, गायों के लिए डालते और दूसरा बोझा गाँव में. बेचकर आटा दाल का सामान जुटाते। लोगों को उस समय बड़ा आश्चर्य होता कि गर्मी के मौसम में जंगल में घास समाप्त हो जाती थी, तब भी बोंदरु बाबा गायों के लिए नियमित घास न जाने कहाँ से ले आते थे तथा गायों को खिलाते थे। संत बोंदरु किसी प्राणी को कभी नहीं सताते थे, यहाँ तक की बिच्छु-साँप आदि जहरीले प्राणियों को भी न कभी मारते थे और न उनके सामने किसी को मारने देते थे। पक्षियों का कलरव सुनकर या गायों की घंटाल की आवाज सुनकर तथा बछड़ों का रम्भाना सुनकर उन्हें इतना आनन्द आता था कि सुनते ही रह जाते थे। अगर कहीं पूराण या भागवत की कथा होती तो वहाँ जाकर बड़े ध्यान से सुना करते थे। कोई भजन-कीर्तन होता तो स्वयं भी उनके साथ बैठकर भजनों के पद गाया करते थे। कोई साधु महात्मा गाँव में आते तो उनके दर्शन करते और उनसे ज्ञान की बातें सुना करते थे। द्वार पर आये हुए साधु-संत या भिखारी को कुछ न कुछ अवश्य देते थे। 

संत के द्वार से कोई भी माँगने वाला कभी खाली हाथ नहीं लौटा। जबकि संत स्वयं एवं उनकी माताजी नित्य मजदूरी करके अपना जीवन यापन करते थे। दान की महत्ता भी इसी में है कि स्वयं हमारे पास ही कमी हो और उसमें से भी दान कर देना । गुरु और , गुरुमाई ने एक बार जो अमृत स्वरुप भगवत्प्रेम रस का आस्वादन करा दिया था, भला उससे वे कैसे दूर हट सकते थे। संत बोंदर कहा करते थे कि “पूर्व जन्मों के उपार्जित पुण्यों के प्रभाव से हमें दुर्लभ मानव देह मिली है, इसका उपयोग यदि मनुष्य मोक्ष के लिए प्रयत्न करने में नहीं लगाता, तो वहमंदबुद्धिस्वयं अपनाही नाश करता है। 

* जय संत बोंदरु बाबा *


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