संत बोंदरु बाबा का आशीर्वाद (राजा को पुत्र प्राप्ति)
कुँवे के पास का यह नजारा देखकर राजा के सिपाही और दरबारी संत को वहीं लोगों की भीड़ में छोड़कर भागे-भागे राजा के राज दरबार में पहुंचे और राजा मोहनसिंह से हाथ जोड़कर सारा हाल सुनाया। राजा विचार करने लगे संत बोंदरु भगवान के एकनिष्ठ भक्त हैं। प्रायश्चित द्वारा हम अन्य पापों से तो कदाचित् मुक्त हो सकते है, परन्तु एक सच्चे ईश्वर भक्त के प्रति किये गये अपराध रुप पाप से, गंगा स्नान करने या अन्य प्रायश्चित करने से कदापि मुक्ति नहीं मिल सकती। हमें शीघ्र भक्त के चरणों में प्रणाम करके क्षमा याचना करना चाहिए।
राजा स्वयं अपने राज दरबारियों सहित पैदल चलकर कुँवे के पास आये और बाबा बोंदरु से क्षमा याचना करने लगे तथा अपने महल में पधारने का आग्रह करने लगे। भक्त का हृदय न दुःख में दुखी होता है न सुख में सुखी । सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान और निन्दा-स्तुति आदि में एवं मिट्टी, पत्थर व स्वर्ण आदि में सर्वत्र उनका समभाव हो जाता है।
इसलिए न किसी प्रिय वस्तु की प्राप्ति एवं अप्रिय की निवृत्ति में उन्हे हर्ष होता है, न प्रिय की निवृत्ति और अप्रिय की प्राप्ति में शोक होता है। राग-द्वेष तो होता ही नहीं है, शत्रु-मित्र सब समान होते है। इसलिए संत प्रवर तुरंत राजा मोहनसिंह के साथ महल में चलने को तैयार हो गये। राजा ने अपने महल में ले जाकर संत बोंदरु की खुब आवभगत, आदर-सत्कार किया, खुब सम्मान दिया । बड़ी अनुनय विनय कर कहा-मुझे शिष्य बनालो। संत ने कहा-राजन् ..... मैं तो सिंगापंथी साधु हूँ। अहिंसा मेरा मूल मंत्र है। तुम हो राजा। राजा को अपने क्षेत्र में दण्ड देने का भी अधिकार होता है। इसलिए आपसे व्रत नहीं निभेगा। तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा-गुरुदेव....जब हमारी जान लेने का कोई प्रयत्न करेगा। या हमारी प्रज़ा को कोई सतायेगा, तब भी हम आपकी ही आज्ञा लेकर युद्ध आदि का कोई कार्य करेंगे। हम आपकी हर आज्ञा का पालन करेंगे। संत ने राजा का इतना आग्रह देखा तो शिष्य बनाना स्वीकार कर लिया। राजा व रानी को समक्ष बैठाकर ज्ञान का उपदेश करने लगे; कहने लगे "सुनो राजन्...कभी चोरी या व्यभिचार नहीं करना चाहिए, झुठ, कपट या छल का सहारा नहीं लेना चाहिए, किसी के साथ जबरदस्ती या हिंसा का व्यवहार नहीं करना चाहिए, अभक्ष्य भोजन कभी नहीं करना चाहिए। प्रमाद आदि शास्त्र विरुद्ध नीच कर्मों को किसी भी प्रकार मन से, वाणी से या शरीर से नहीं करना चाहिए। किसी गरीब या लाचार से जबरन कर नहीं वसूलना चाहिए । माह दो माह मे एक बार प्रजा में स्वयं गुप्त रुप से जाकर हाल जानने का प्रयत्न करना चाहिए। तब ही मालुम पड़ेगा की वास्तव में प्रजा सुखी है या दुखी है ।
मंत्रियों और सेवकों पर आवश्यकता से अधिक विश्वास नहीं करना चाहिए। नगर में आए हुए संत महात्मा पर बिना वजह आरोप नहीं लगाना चाहिए । आवश्यकता लगे तो प्रजा से रुबरु मिलना चाहिए। बाहरी आक्रमण हो तो बिना किसी संकोच के क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए डटकर मुकाबला करना चाहिए। खुद होकर के किसी दूसरे राज्य पर आक्रमण नहीं करना चाहिए। बिना वजह किसी प्राणी को नहीं सताना चाहिए। इतना उपदेश देकर महाराज को अपना शिष्य स्वीकार कर लिया तथा पंचनामी गुरु मंत्र दे दिया। गुरु मंत्र के बाद महाराज को समझाया कि-राजन् कभी कोई मुसीबत आ जावे तो गुरु मंत्र का जाप करना और करना डटकर मुसीबत का सामना, परिणाम ईश्वर पर छोड़ देना और मंत्र का प्रभाव खुद ही देख लेना। महाराज ने गुरु के चरण छुए और अपने हाथ से संत बोंदरु को तिलक लगाकर राजगुरु बनाने का संकल्प ले लिया। उधर संत बोंदरु ने उपदेश करते हुए राणी के उदास मुख को देख लिया था। पुछा-महाराणीजी, आपका मुख उदास क्यों है ? कोई चिंता ? बीच में ही राजा साहेब बोल उठे-गुरुदेव ! हमारी कोई सन्तान नहीं है। इसलिए रानी उदास-उदास रहा करती है। रानी ने भी हाथ जोड़कर सविनय सिर झुका लिया। संत ने कहा-ठीक है, आप यहीं बैठे रहे । मैं ईश्वर से प्रार्थना करके देखता हूँ, आपकी किस्मत में पुत्र रत्न है या नहीं? राजा एवं रानी ने स्वीकारोक्ति में सिर हिलाकर हामी भर ली।
संत बोंदरु खड़े हुए और पास ही स्थित खेत में आम के वृक्ष के नीचे चले गये। ईश्वर की हाथ जोड़कर प्रार्थना की। आम वृक्ष के हाथ जोड़े और कहा-हे नाथ, हे प्रभु अगर राजा मोहनसिंह के भाग्य में संतान सुख हो तो मुझे इस आम वृक्ष से एक फल अवश्य दे दें। बे मौसम, भादौ-कॅवार का महिना था, फिर भी भक्त की एक मुखी दिन पुकार सात लोकों को भेदकर संत ने एक कारीगर और दो-चार मजदूरों को समाधी निर्माण के काम में लगा दिया। समाधी स्थल गाँव के पूर्व की ओर गायों के गोहया पर जहाँ बााबा नित्य गायों को घास डाला करते थे, वहाँ निश्चित कर दिया। पत्थर लाकर गढ़े जाने लगे। गड्ढ़ा बनाकर उसे अच्छी तरह से सीमेंट पत्थरों से जोड़ा जाने लगा। हाँ, यहा एक बात बता दूँ! कुछ लोगों का मत है कि माता राधाबाई के सामने ही संत बोंदरु बाबा ने समाधी ले ली थी. परन्तु कुछ लोगों का मत है कि माताजी पहिले इस असार संसार से विदा हो गई थी। यहाँ एक बात विचारणीय है कि संत बोंदरु बाबा की समाधी के निकट ही माताजी की समाधी भी बनी हुई है, मेरे विचार से संत ने पहिले समाधी ली होगी और - माताजी राधाबाई ने बाद में देह त्याग की होगी। इससे भक्तों ने बाबा की समाधी के निकट ही माताजी की समाधी भी बनवा दी होगी। इसके बाद तो जितने भी गादी के महन्त हुए, सभी की समाधियाँ वहीं बनी हुई है। खैर, कुछ भी हुआ हो ! परन्तु संत बोंदरु बाबा की सामधी तो संत ने स्वयं ही बनवाई थी।
जब मजदूर और कारीगर संत से मजदूरी माँगने आते तो संत उन्हें स्वयं हाथ से मजदूरी नहीं चुकाते थे । बल्कि उन्हें गोहया पर के मार्ग में एक झाड़ी का नाम बताकर कहते-जाओं उस बोर की झाड़ी के गोड़ (जड़) के पास से तुम्हारी मजदूरी के पैसे निकाल लेना । मजदूर जाते और बोर के नीचे मिट्टी हटाते और अपनी मजदूरी के सिक्के उठा लेते। बाकी सिक्कों को वापस वही मिट्टी में दबा देते । एक दिन किसी मजदूर के मन में बेईमानी आ गई। सोचा ! बाबा. तो यहाँ है नहीं और न ही यहाँ कोई देखने वाला है ? अगर मैं ज्यादा भी सिक्के निकाल लँगा, तो मेरा नाम थोड़े ही होगा ? ऐसा सोचकर अपनी मजदूरी से अधिक पैसे उसने निकाल लिए और जब जेब में भरकर जल्दी-जल्दी घर की ओर चल दिया। रास्ते में देखता क्या है कि उसकी जेब में एक अधेला भी नहीं है। सब रुपये गायब हो गये और जेब खाली। वह मजदूर खुब पछताया और सोचा चहुँ झाड़ी में तो पैसे होंगे, फिर से निकाल लाऊँ । वापस उसी बोर की झाड़ी के पास जाकर पैसे ढुदने लगा, लेकिन वहाँ से भी खाली हाथ लौटना पड़ा क्योंकि वहाँ भी पैसे नहीं थे। अब तो मजदूर बहुत घबराया और बाबा के पास जाकर मजदूरी माँगने लगा । संत ने कहा-जा उस बोर की झाड़ी में से तेरी मजदूरी के पैसे निकाल लेना। मजदूर ने कहा-बाबाजी ! वहाँ तो | पैसे नहीं है ! मैं देख आया!! __संत ने कहा-तुने बेईमानी की होगी ? अधिक पैसे निकाल लिए होंगे ? तेरी मजदूरी केवल पाँच पावली (सवारुपया) होती है। बोल! क्या, मैं सही कह रहा हूँ? मजदूर पाँवों पर गिर पड़ा और गिड़गिड़ाने लगा-महात्मा जी मेरे मन में बेईमानी आ | गई थी। मैंने अधिक रुपये निकाल लिए थे। अब मैं आईन्दा ऐसा नहीं करूँगा। मुझे क्षमा कर दो। संत ने कहा-जा, अब उसी झाड़ी में से तेरी पाँच पावली निकाल लाना। अब उसमें पैसे है। मिल जायेंगे और वास्तव में दूसरी बार गया तो उस मजदूर को उसके पैसे झाड़ी में ही मिलगये।
दिव्य भगवद्धाम में पहुँच ही गई और भक्त वत्सल प्रभु ने भक्त की इच्छानुसार एक आम फल (कैरी) उस वृक्ष पर लटका ही दी। संत की नजर पड़ी तो ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद किया और उस फल (कैरी) को लाकर राजा के हाथ में दे दिया व कहा-राजन् यह फल रानी को खिला दो, प्रभु की कृपा से पुत्र रत्न ही होगा। राजा मोहनसिंह व रानी भी बहुत खुश हुए। साथ ही . आश्चर्यचकित भी, कि बेमौसम गुरु ने आम फल लाकर दे दिया। कहते हैं, ईश्वर कृपा से दस माह बाद ही राजा ने एक पुत्र रत्न पाया और यह भी कि उसी के वंश के लोग आज भी बड़वानी में रहते हैं।
* जय संत बोंदरु बाबा *
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