संत बोंदरु बाबा
पावन धरा भारत वर्ष के मध्यप्रदेश प्रान्त के होशंगाबाद में संत प्रवर बोंदरु बाबा का जन्म विक्रम सम्वत् 1765 ई. सन् के अनुसार 1708 ई. सन में एक गरीब परिवार में हुआ था। किसी-किसी का मत है कि बाबा का जन्म स्थान होशंगाबाद के पास हरदा ग्राम है। बाद में परिवार होशंगाबाद आकर बस गया था। इनके पिताजी का नाम गोपालजी एवं माता का नाम राधाबाई था। ये भीलाला दरबार जाति के होकर खेतीहर मजदूर थे। लोगों के खेतों में दिहाड़ी भी उन । मजदूरी करके अपना जीवन यापन करते थे। पिता गोपालजी बड़े ही सरल हृदय एवं विनोदी से संत स्वभाव के थे। गुणियों को परखने की उनकी विलक्षण प्रतिभाथी, उदार भाव से अतिथि सत्कार जीत, एवं साधु-संतों की सेवा-श्रुषा किया करते थे। परन्तु दैवयोग से अल्प आयु में ही अपने छोटे से पुत्र बोंदरु और पत्नी राधाबाई को बेसहारा छोड़कर इस असार संसार से सदा के लिए विदा हो गये। राधाबाई भी अपने पति के पदचिन्हों का अनुशरण करने वाली एक सती साध्वी नारी थी।
बोंदरु उस जमाने में जहाँ-तहाँ शालाएँ नहीं हआ करती थी, राज परिवारों के बच्चों कीया सेठ साहुकारों के बच्चों की शिक्षा-दिक्षा के लिए तो किसी गुरु या पंडित की नियुक्ति हो जाती थी, परन्तु सामान्य जनता के बालक तो अनपढ़ ही रह जाते थे। बड़ी खुशामदी मान मनुहार के बाद कभी कोई साधु संत को दया आ जाती तो वे दो-चार शिष्य बनाकर उन्हे विद्याध्ययन करवाते थे।
माता राधाबाई के मन में साधु-महात्माओं के प्रति श्रद्धा और आदर भाव था । जब कोई लोई भी अतिथिया साधुसंत द्वार पर आते तो राधाबाई यथाशक्ति श्रृद्धापूर्वक उनकी सेवा करती थी। पुत्र बोंदरू की शिक्षा दिक्षा के लिए वह भी हमेशा चिंतित रहा करती थी। उत्कट श्रद्धा होने पर एक दिन वह अवश्य फलवती होती है। नर्मदा जी के किनारे एक तपोनिष्ठ सिद्ध महात्मा एक छोटी कुटिया में अपनी पत्नी के साथ रहा करते थे। लोगों के मुख से सुन रखा था कि वे महात्मा बड़े सिद्धि प्राप्त है, उनके दर्शन करना भी एक सौभाग्य की बात होगी। माता राधाबाई अपने 67 वर्ष के पुत्र बोंदरु को साथ लेकर उस महात्मा के दर्शन हेतु आश्रम में पहुँची। यही आश्रम रामदासजी बाबा का था। जो अपनी पत्नी देवाबाई के साथ वहाँ रहकर ईश्वर आराधना किया करते थे। ये साधु सिंगापंथी साधु कहलाते थे। कोई ब्रह्मश्चारी रहकर या कोई गृहस्थी के साथ रहकर ईश्वर आराधना करते और ईश्वर को प्राप्त करते थे।
माता राधाबाई ने महात्मा रामदास एवं उनकी पत्नी देवाबाई के चरण छुए और अपना मनतव्य बताया कहा-महात्माजी यह एक गरीब माता का, पितृ विहिन पुत्र है। पिता का साया इसके सिर से उठ चुका है। इसे अपना शिष्य बनाकर इस पर कृपा कीजिए । मैं बहुत गरीब हूँ, दिहाड़ी मजदूरी करके अपना और अपने पुत्र का जीवन निर्वाह करती हूँ, महात्मन दया कीजिए। माता का इस प्रकार करुण क्रदन सुनकर महात्मा रामदासजी ने कहा-देवी मैंने तो मेरा एक
शिष्य बना लिया है, परन्तु मेरी पत्नी भी कुछ लोगों के आग्रह करने पर अपने शिष्य बना पाँच शिष्य बना लिये हैं, वे अगर चाहे तो छटा शिष्य आपके पुत्र बोंदरु को बना सकती है। पर देवी आपका पुत्र अभी बहुत छोटा है, क्या आपके बिना यह बालक आश्रम में हमारे साथ ले लेगा? इस प्रकार शिष्य बनाने की सहमति मिलती देख माता राधाबाई एवं पुत्र बोंदरु संत चरणों में झुक गये और आश्रम में रहने के लिए बालक बोंदरु तैयार हो गये। बोंदरु को शिष्य को देवी देवाबाई जिन्हें देवादास भी कहते थे, ने बनाया था, लेकिन विद्या अध्यापन दोनो पति-पत्नी मिलकर ही किया करते थे, इसलिए जब बोंदरु बाबा के गुरु के नाम की चर्चा हाते है तो महाला रामदासजीकाही नाम लेते है।
* जय गुरु रामदासजी *
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