समाधी स्थल पर संत बोंदरु बाबा
स संत श्री बोंदरु बाबा की कहानी लिखते समय यह विचार मेरे मन में आया कि क्यों न है उन लोगों से बातचीत की जावे, जिन्होंने साक्षात संत श्री बोंदरु बाबा के दर्शन किय हों। इस , अवधी में कुछ लोगों से बात करते वक्त यह बात सामने आई कि किसी देव शक्ति के दुर्लभ दर्शन हो जावे तो वे किसी को बताना नहीं चाहिए, वर्ना उस देव दर्शन का फल नहीं मिलता व आगे और कभी उस देव के दर्शनों की उम्मीद कम हो जाती है। मैं सोचता हूँ कि ऐसा तो नहीं हो सकता। हाँ, इसके पीछे यह विचार जरुर होगा कि-आज के इस भौतिकवादी युग में विज्ञान की दौड़ में आगे निकलने की कोशिश करता यह मानव समाज सच्ची आध्यात्मिकता से दूर हटता चला जा रहा है, इसलिए वह ऐसी बातों पर विश्वास नहीं करता, बल्कि ऐसी बातें करने वाले को ही अपने तर्कों द्वारा झुठलाकर उसकी खिल्ली उड़ाने का प्रयास करता है। इसलिए कोई भी मनुष्य इस बारे में विस्तार से बताने को राजी ही नहीं होता है। मैंने एक सज्जन से इस बारे में पुछा तो उन्होंने कहानी किसी को न बताने की शर्त पर अपना अनुभव मुझे बताया। शायद र उन्हें डर हो कि लोग उनको भी झुठलाने की कोशिश करेंगे। उन्हीं के शब्दों में मैं कहानी को लिखने का प्रयास करता हूँ बिना नाम लिये। गर्मी का मौसम था, इस समय गाँवों के लोग गली, आवार या मैदानों में खटिया डालकर - उस पर रात्री में सोया करते हैं, घरों में पंखे आदि न होने से गर्मी अधिक होती है। बात बहुत पुरानी नहीं है, पैतालिस-पचास साल हुए होंगे।
मैं और मेरे पिताजी बाहर गली में गर्मी में खटियाएँ डाल कर सोये थे, न जाने क्या हुआ कि रात्री में मेरी नींद उचट गई, प्रयत्न करने पर भी नींद नहीं आई तो मैं खड़ा होकर गली में टहलने लगा, टहलते हए ही मैंने पिताजी को जगाकर बता दिया कि मैं गली में घूम रहा हूँ। उन्होंने सोते हुए ही हामी भर दी। चाँदनी रात थी, मैं गाँव के पूर्व में कोंडाल नामक खेत में पगडंडी पर चलता हुआ वहाँ के कुँवे से आगे चला गया । मेरी नजर बोंदरु बाबा की समाधी की ओर चली गई।
उस समय बोंदरु बाबा की समाधी के मैदान में एक भी घर नहीं बना था, न वहाँ कोई रहता था, मैं देखता क्या हूँ कि बाबा की समाधि के ऊपर बनी हई छतरी पर दीपक जर रहे हैं, दीपक भी इतने की गिने न जा सके। छतरी के ऊपर बने तीन खण्डों पर, छतरी के चारों ओर दो-दो, तीन-तीन इंच की दूरी पर तीन कतारों में जल रहे है, समाधी के बने ओटले पर भी इसी प्रकार ओटले के किनारों पर चारों ओर दीपक जल रहे हैं, यह देखकर मैं घर आया तो पिताजी को पछा कि आज क्या दिन हैं तो उन्होंने बताया कि बुधवार और मेरे से पुछ लिया-क्यों? तो मैंने उनकी बात का जवाब न देकर पुनः पुछा-अभी क्या बज रहा होगा ? पिताजी ने कहा-चाँद ढल गया है तो ढाई या तीन तो बजे ही होंगे फिर मैंने पुछाक्या शाम के लगे हए दीपक अभी तक जल सकते है..तो उन्होंने कहा-बड़ा,टीपक हा.आर तेल अधिक डाल दिया हो तो जलता रह सकता है। पिताजी ने आगे पुछा-क्यों क्या हुआ? तब मैंने उनको बताया कि संत बोंदरु बाबा की समाधी पर एक नहीं कई दीपक जल रहे हैं, तो वे खड़े हो गये लकड़ी हाथ में उठाई और मेरे साथ कोंडाल की ओर चलने लगे। पुराने लोगों को मालुम होगा कि कोंडाल के बीच में से एक पगडंडी सीधी बोंदरु बाबा के मैदान में जाती थी। कोंडाल के आखिरी सीरे पर सात-आठ आम के वृक्षों का झुण्ड था, उनके नीचे से ही पगडंडी रास्ता था ।
हम भी दोनों जने जलते हुये दिपकों को देखते हुए, आमों के नीचे से निकल कर खेत की बागड़ के पास जाकर मैं रुक गया और पिताजी आगे नाली पार करके उस पार टेकरी पर जाकर खड़े हो गय । लगभग पाँच-सात मिनट खड़े होकर देखते रहे । मैं भी देखता रहा। उसी प्रकार दीपक जल रहे हैं, चाँदनी रात हैं फिर भी 200-250 मीटर की दूरी होने से स्पष्ट कुछ भी नही दिखाई दे रहा था। मुझे कुछ ऐसा लग रहा था कि समाधी के सामने कुछ हिल रहा था, सफेद-सफेद शायद कोई आदमी या और कुछ । समाधी के ओटले पर भी ऐसा लग रहा था कि कोई बैठा है; परन्तु फिर दिल में विचार आया कि वहाँ तो दीपक की सुरक्षा के लिए छोटी सी मुंजेरी बनी हुई है, पर वह तो छोटी सी है, रोज ही तो देखते है, फिर क्या होगा ? मैं यह सोच ही रहा था कि पिताजी वापस पलटकर मेरे पास आ गये। मैंने उनसे पुछा क्या हैं ? तो वे कहने लगे। कुछ नहीं, किसी ने दीपक लगा दिए हैं। ऐसी बात कर ही रहे थे कि फिर मेरी नजर समाधी की ओर गई, तो देखा कि वहाँ एक भी दीपक नहीं जल रहा था। सभी दीपक बुझ चुके हैं। मैंने पिताजी से कहा-अरे! देखो, अब तो एक भी दीपक नहीं जल रहा हैं ।
एकदम सभी दीपक बुझ चुके हैं। पिताजी ने भी देखा और मुझसे कहा -शायद हवा में बुझ गये होंगे। ऐसा कहते हुए वे वापस घर की ओर चलने लगे। मैं भी उनके पीछे-पीछे चलने लगा। मैं बार-बार समाधी की ओर मुड़-मुड़ कर देखता जा रहा था। परन्तु वहाँ अब कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने पिताजी से पुछा-आज कौन सी तिथि होगी ? तो वे बोल-शायद चौदस या पूर्णिमा होगी और वापस अपनी-अपनी खटिया पर आ कर सो गये। मेरे मन में जिज्ञासा बनी हुई थी कि शायद वहाँ कुछ न कुछ अवश्य था, जो पिताजी ने देखा और मुझे नहीं बता रहे हैं। इसी उहापोह में चार-छः दिन निकल गये। एक दिन फिर मैंने पिताजी से कहा-पिताजी वास्तव में उस रोज आपने बोंदरु बाबा की समाधी पर क्या देखा था ? मुझे ऐसा लग रहा था कि समाधी के सामने कोई न कोई था। तब पिताजी ने बताया कि किसी को ऐसी बातें बताना नहीं चाहिए और अपने को भी वहाँ नहीं जाना चाहिए था। वहाँ समाधी के सामने एक सफेद रंग का घोड़ाखड़ा था और समाधी के ओटले पर एक आदमी बैठा था। शायद बोंदरु बाबाआये होंगे। फिर पिताजी ने दूबारा हिदायद दी कि किसी को बताना मत । मैंने स्वीकार्य करते हुए सिर हिलाकर हामी भरी । ऐसा कहकर वह चुप हो गये तब मैंने उन्हें धन्यवाद दिया। कहानी बताने के लिए। इसी कड़ी में पता यह भी चला कि बाबा की पुजारीन सादेण माय को भी बाबा ने साक्षात दर्शन दिए थे। सादेण माय उस समय डर गई थी, परन्तु बाद में समझ में आया कि वे तो बोंदरु बाबा थे। इस प्रकार कई लोग . बाबा के दर्शनों की झलक पा चुकें हैं। परन्तु वे बतलाना नहीं चाहते।
* जय संत बोंदरु बाबा *
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