समाधी निर्माण
जब संत बोंदरु बाबा का अधिक ही प्रचार होने लगा तो अनेक-अनेक समस्याएँ लेकर जनता उनके निवास पर आने लगी। समस्याओं के हल हो जाने पर लोग बाबा की जय जयकार करने लगते । संत उन्हें लाख समझाते कि यह तो प्रभु की माया का चमत्कार है, आप मेरा गुणगान क्यों करते हो,फिर भी लोग संत बोंदरु बाबा की ही जय जय कार करते थे। यह देखकर एक दिन संत के मन में विचार आया कि अगर ऐसी ही मेरी जय जय कार होती रही तो मुझे घमण्ड छुने लगेगा और घमण्ड से भगवान दूर ही रहते है। प्रभुको मेरा घमण्ड दूर करने के लिए कोई न कोई चमत्कार करना पड़ेगा। अतः मैं ही क्यों न घमण्ड से पहिले ही बच जाऊँ । अब अधिक इस संसार में रह कर भी क्या करना। क्यों न ईश्वर से जाकर मिल जाऊँ । उस दुर्लभ आनन्द को प्राप्त करूँ, जब आत्मा से परमात्मा का मिलन होता है। आह! कितना आनन्द प्राप्त होता होगा। पृथ्वी के इने-गिने लोगों को ही यह सुख प्राप्त होता है। ऐसा सोचते हुए ध्यानस्थ हो गये और ध्यान में प्रभु का साक्षात्कार करने लगे। संत बोंदरु ध्यान में या खुली आँखों से भी प्रभु का कई बार साक्षात्कार कर चुके थे। परन्तु उन्होंने ईश्वर से अपने लिए कभी कुछ नहीं माँगा । हमेशा उन्हें संसार के प्राणियों के ही दु:ख-दर्द की चिन्ता सताया करती थी। इसीलिए हमेशा लोगों का ही दु:ख-दर्द दूर किया करते थे। संत के मन में अपने गुरु एवं गुरुमाई की आज्ञानुसार समाधी लेने का विचार होने लगा और यही सिंगापंथी साधुओं का मुख्य लक्ष्य होता था । एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों एवं भक्तों आदिको अपने मन की बात बताई। संत बोंदरु बाबा के समाधी लेने की इच्छा सुनकर सभी के मन में हर्ष और उल्लास भर गया परन्तु साथ ही उनके मन में दु:ख भी भर गया कि अब संत हमारा साथ छोड़कर परमधाम जाने का इरादा कर रहे है। अब हमारे दु:ख-दर्द में हमारा साथ कौन देगा।
संत ने एक कारीगर और दो-चार मजदूरों को समाधी निर्माण के काम में लगा दिया। समाधी स्थल गाँव के पूर्व की ओर गायों के गोहया पर जहाँ बााबा नित्य गायों को घास डाला करते थे, वहाँ निश्चित कर दिया। पत्थर लाकर गढ़े जाने लगे। गड्ढ़ा बनाकर उसे अच्छी तरह से सीमेंट पत्थरों से जोड़ा जाने लगा। हाँ, यहा एक बात बता दूँ! कुछ लोगों का मत है कि माता राधाबाई के सामने ही संत बोंदरु बाबा ने समाधी ले ली थी. परन्तु कुछ लोगों का मत है कि माताजी पहिले इस असार संसार से विदा हो गई थी। यहाँ एक बात विचारणीय है कि संत बोंदरु बाबा की समाधी के निकट ही माताजी की समाधी भी बनी हुई है, मेरे विचार से संत ने पहिले समाधी ली होगी और - माताजी राधाबाई ने बाद में देह त्याग की होगी। इससे भक्तों ने बाबा की समाधी के निकट ही माताजी की समाधी भी बनवा दी होगी। इसके बाद तो जितने भी गादी के महन्त हुए, सभी की समाधियाँ वहीं बनी हुई है। खैर, कुछ भी हुआ हो ! परन्तु संत बोंदरु बाबा की सामधी तो संत ने स्वयं ही बनवाई थी। जब मजदूर और कारीगर संत से मजदूरी माँगने आते तो संत उन्हें स्वयं हाथ से मजदूरी नहीं चुकाते थे । बल्कि उन्हें गोहया पर के मार्ग में एक झाड़ी का नाम बताकर कहते-जाओं उस बोर की झाड़ी के गोड़ (जड़) के पास से तुम्हारी मजदूरी के पैसे निकाल लेना । मजदूर जाते और बोर के नीचे मिट्टी हटाते और अपनी मजदूरी के सिक्के उठा लेते। बाकी सिक्कों को वापस वही मिट्टी में दबा देते । एक दिन किसी मजदूर के मन में बेईमानी आ गई। सोचा ! बाबा. तो यहाँ है नहीं और न ही यहाँ कोई देखने वाला है ? अगर मैं ज्यादा भी सिक्के निकाल लँगा, तो मेरा नाम थोड़े ही होगा ? ऐसा सोचकर अपनी मजदूरी से अधिक पैसे उसने निकाल लिए और जब जेब में भरकर जल्दी-जल्दी घर की ओर चल दिया। रास्ते में देखता क्या है कि उसकी जेब में एक अधेला भी नहीं है। सब रुपये गायब हो गये और जेब खाली।
वह मजदूर खुब पछताया और सोचा चहुँ झाड़ी में तो पैसे होंगे, फिर से निकाल लाऊँ । वापस उसी बोर की झाड़ी के पास जाकर पैसे ढुदने लगा, लेकिन वहाँ से भी खाली हाथ लौटना पड़ा क्योंकि वहाँ भी पैसे नहीं थे। अब तो मजदूर बहुत घबराया और बाबा के पास जाकर मजदूरी माँगने लगा । संत ने कहा-जा उस बोर की झाड़ी में से तेरी मजदूरी के पैसे निकाल लेना। मजदूर ने कहा-बाबाजी ! वहाँ तो | पैसे नहीं है ! मैं देख आया!! __संत ने कहा-तुने बेईमानी की होगी ? अधिक पैसे निकाल लिए होंगे ? तेरी मजदूरी केवल पाँच पावली (सवारुपया) होती है। बोल! क्या, मैं सही कह रहा हूँ? मजदूर पाँवों पर गिर पड़ा और गिड़गिड़ाने लगा-महात्मा जी मेरे मन में बेईमानी आ | गई थी। मैंने अधिक रुपये निकाल लिए थे। अब मैं आईन्दा ऐसा नहीं करूँगा। मुझे क्षमा कर दो। संत ने कहा-जा, अब उसी झाड़ी में से तेरी पाँच पावली निकाल लाना। अब उसमें पैसे है। मिल जायेंगे और वास्तव में दूसरी बार गया तो उस मजदूर को उसके पैसे झाड़ी में ही मिलगये।
आज भी लोग जिस रास्ते पर वह झाड़ी थी, उसे “पाँच पावली" ही कहते हैं। मालुम नहीं उस बोर की झाड़ी का निश्चित स्थान कहाँ पर था। परन्तु “पाँच पावली" तो पूरे रास्ते को . ही कहने लगगये हैं। इस प्रकार समाधी बनकर तैयार हो गई। अब संत ने अपने भक्तों एवं शिष्यों से - मिलकर जीवित समाधी लेने के लिए मुहुर्त का विचार करने लगे।
* जय संत बोंदरु बाबा *
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