संत के चमत्कार (नाना शवल्या को दर्शन)
बाबा बोंदरु के मद में जहाँ गुरु पूर्णिमा से कृष्ण जन्माष्टमी तक रात में नित्य भजन गाये जाते है और जन्माष्टमी की रात में शाम से लगाकर सुबह तक रास मण्डल होता हैं । बीच मैदान में एक पवित्र लकड़ी (सेमल वृक्ष की) का खम्भ रोपते (गाड़ते) हैं। उसके उपरी सिरे से चारों ओर रस्सियाँ, छाते की ताड़ियों की तरह बाँधकर उन पर कपड़े की छत डाल दी जाती हैं। इस छत के नीचे जन्माष्टमी के दिन शाम से बारह बजे रात्री तक निमाड़ी भाषा के भजनों में भागवत कथा (कृष्ण जन्म) गाई जाती हैं, तथा कृष्ण जन्म की आरती होने बाद दधि, बंशी या ग्वालिने नाम के गाने जो कृष्ण लीलाओं से ओत प्रोत होते हैं,गाये जाते हैं । गोगा नवमी को दिन भर भी गाना चलता रहता हैं । इस सब गाने बजाने के समय, एक आदमी जिसे 'रावल्या' कहते हैं, गाने वाले खम्भ के चारों ओर घूमते जाते है और गाते रहते है। तब वह रावल्या महिलाओं सा श्रृंगार किये आगे-आगे नाचता रहता है। इस सब कार्यो में गाने-बजाने या नाचने वाला सब अपने आप को संत बोंदरु बाबा का शिष्य या भक्त समझकर श्रद्धा भाव से व बड़ी लगन से अपना कर्तव्य निर्वहन करते हैं। इस कार्य के लिए किसी की खुशामद आदि नहीं करनी पड़ती, न कोई कुछ मेहनताना लेता । अपनी भक्तिसमझकर सभी अपना-अपना कार्य करते है। एकरावल्या था, नाम था उसका “नाना" । हमेशा कृष्ण जन्माष्टमी पर बोंदरु बाबा के मढ़ में वहीं नाचता था। शायद बचपन से वह यह काम कर रहा था। कुछ अन्य परिस्थिति वश नाना रावल्या का परिवार (उनकी पत्नी, बच्चे आदि) राजपुर के पास एक गाँव में जाकर बस गया। लेकिन हर वर्ष जन्माष्टमी पर अपने साज श्रृंगार, कपड़े आदि लेकर नाचने जरुर आता था। एक वर्ष संयोग से वह बिमार हो गया और बिमार भी ऐसा कि एक महीने भर से खटिया से नीचे नहीं उतरा था ।
यहाँ तक कि लोग, उसके बचने की उम्मीद छोड़ चुके थे। जन्माष्टमी का पर्व नजदीक आता जा रहा था। परन्तु वह मजबूर था, करता भी क्या ? सिर्फ बाबा का नाम ले लेकर मढ़ के खम्भ में न नाचने का दुःख मनाया करता था। कभी-कभी चुपचाप आँसु भी बहा लेता था। नागझिरी में सब लोगों को विदित हो चुका था कि-'नाना रावल्या इस वर्ष नाचने नहीं आवेगा, क्योंकि वह बहुत अधिक बिमार हैं। जन्माष्टमी के दिन शाम को लगभग आठ बजे एक आदमी नाना भाई रावल्या के घर आवाज देता हुआ गया। नाना रावत्या जिस खटिया पर सोया था, वह आदमी भी उसी खटिया पर बैठ गया और नाना भाई का हाथ पकड़कर बातें करने लगा। आगन्तुक-कहो! नाना भाई! कसी काई तबियत छ ? नाना-(बोलने में तकलीफ होती है, रुक रुककर बोलता हैं) बहुत....ज्यादा....खराब.....हुई... गई.... भाई..... । एक....महीना....सी....तो....हांऊ....खाट सी....निच्च नी....उतरयो। आगन्तु-आज जन्माष्टमी हुई गई, अरु तू तो यहांज छे, न वहाँ बोंदरु बाबा का मढ़म नाचग कुण? नाना-काई करु....भाई.... | बिचारा....रस्तो....देखता....होयगा। आगन्तुक-रस्तो देखता होयगा? कि मख लेण भेजोज । नाना की पत्नी-(जो पास ही बैठी दोनों की बातें सुन रही थी) नई भाई। उनकी तबियत अच्छा नी हांई, हाँऊतो कईनी भेजूं । असी हालतम। आगन्तुक-तुम चिन्ता मत करो बाई; हांऊघोड़ों लायेल छे; वका पर बठाड़ी न न लई जाऊंगा। बड़ी कालजी सी। ऐसी बातचीत करने की धून में नानाभाई जैसे भुल गया कि वह बिमार है, अपने आप खटिया पर बैठकर बातें करने लगा और फिर धीरे से नीचे उतर कर धीरे-धीरे चलता हुआ अपनी पेटी के पास जाकर नाचने का श्रृंगार का सामान, कपड़े आदि निकालकर एक थैली में अलग रखने लगा।
यह देखकर नानाभाई की पत्नी घुस्सा होने लगी और बोलीपत्नी- इ तुम काई करी रहयाज; उ भाई आईगयोज तो तुम खड़ा हुई न जाण ख तैयार ज हुई गया, नमहीना भरी सी खाटली सी नीच्च पायनी धरयो थो। नाना भाई-(समझाते हए) अरे....मख जाणदS....मत रोकड....मरत-जीवनऽ बची....गयोज तो हांऊ बाबा का दरशण करी आऊंगा न सिंगार पेरी न बाबा का मढ़ म ....बठीज रहुंगा तो म्हारो वरतपूरो हुई जायग। इस प्रकार पत्नी को समझा-बुझाकर नाना भाई अपने नाचने का श्रृंगार, सामान की थैली लेकर रवाना होने लगे, तो नाना की पत्नी ने पुछा-क भाई, थारो नाव काई छे ? न जरा बिमार आदमी छे; समालई न लई जाजो। आगन्तुक-हाँ ! हाँ !! हांऊ घोड़ा पर अगेड़ी बठाड़ी न लई जाऊंगा, तुम एतरी फिकर क्यों करोज। म्हारोनाव केशव छे; न हांऊनागझिरीज मरहुँज। नाना भाई धीरे-धीरे चलते हुए घोड़े के पास दरवाजे तक आ गये नाना भाई की पत्नी दरवाजे तक छोड़ने आई; उसके सामने नाना भाई को आगन्तुक ने सहारा देकर घोड़े पर बैठाया। घोड़ा सफेद रंग का ऊँचा पूरा काठ्या वाड़ी था। केशव भाई भी लगाम पकड़ कर घोड़े पर बैठे और रवाना हुए। इधर नागझिरी में लगभग आठ बजे शाम को बाबा के मृदंग पर आटा लगया जारहा था, तब नाना भाई रावल्या ने हाथ में थैली लिए दरवाजे के भीतर कदम रखा। जिसने देखा, वहीं खुशी से चिल्ला उठा-अरे, रावल्या भाई आ गया। रावल्या भाई आ गया। सबने बैठाया। हाल चाल पुछा-तो नाना भाई ने बताया-तुमने मुझे लेने भेजा तो मुझे आना पड़ा। वर्ना तो मैं खाट से भी नीचे नही उतरता था। सब अपने-अपने मन में समझ गये कि-किसी ने लेने भेजा होगा। किसी ने पुछ लिया-कौन गया था लेने ? तो नाना भाई ने बताया केशव भाई; ओ, सफेद घोड़े वाले, अभी आने वाले हैं, मुझे ब्राह्मण कुँवे पर उतारकर वे घोड़ा बांधने उनके घर गये हैं। लोगों ने सोचा केशव भाई के पास तो घोड़ा है ही नहीं और न गाँव में किसी के पास घोड़ा है। लोगों की उत्सुकता बढ़ने लगी। फिर किसी ने पुछ लिया-तुम कब के रास्ते लगे हो ? तो नाना बताया-हम लगभग आठ बजे शाम से रास्ते लगे है।
यह सुनकर सबको आश्चर्य राजपुर, नागझिरी से लगभग 60-65 किलो मीटर दूर हैं और अभी साढ़े आठ बज रही ये यहाँ कैसे आ गये ? तब नाना भाई ने भी मन में विचार किया कि हाँ बात तो सही है। जी एक गाँव भी नहीं आया और राजपुर से चले तो सीधे नागझिरी ही आ गया। यह बात को और सोची ही नहीं। इतने में क्या केशव भाई नाम का आदमी आ गया। उससे लोगों ने पळाक्या वह नाना भाइ को लेने गया था ? तो वह बोला-नहीं तो, मैं तो यही हूँ अभी तोखभरोप अपन सभी ने उसको सजाया और मैं घर गया था। साथ वाले सभी लोगों ने हामी भरी और अन्दाजा लगाने लगे कि संत बोंदरु बाबा स्वयं अपने रावल्या नाना भाई को लेने गये थे। नाना भाई रावल्या वह तो रात भर नाचता रहा । उसे ऐसा लग ही नही रहा था कि वह बिमार है। संत बोंदरु बाबा की जय-जय कार करता रहा। सुबह नवमी के दिन भी निशान चढ़ाने नावते हए जाकर समाधी की परिक्रमा की और खुब सिर नवाया। नाना भाई अस्सी वर्ष की उम्र तक जीवित रहा और हर वर्ष नियम से संत बोंदरु बाबा के मढ़ में जन्माष्टमी पर्व पर नाचता रहा।
* जय संत बोंदरु बाबा *
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