ईश्वरीय चमत्कार (मानव सेवा)
एक बार की बात है, संत बोंदरु की माताजी राधाबाई ने रोटी बनाई और बाँस की टोकनी में रखकर एक थाली से ढककर सीके पर रख दी। उस जमाने में निमाड़ क्षेत्र में गेहूँ की पैदावार न के बाराबर थी। चारों ओर केवल ज्वार और मक्का की पैदावार ही अधिक होती थी। इने-गिने किसानों के खेतों में ही गेहूँ पैदा होते थे। इसलिए हर परिवार ज्वार या मक्का की ही रोटी बनाकर खाया करते थे। माता राधाबाई ने भी ज्वार के आटे की ही चार रोटियाँ बनाई थी। निमाड़ में ज्वार या मक्का की रोटी को रोटा कहा जाता है। याने माँ ने चार रोटे बनाये थे। अब वह घर का दरवाजा लगाकर संत बोंदरु को ढुढ्ने गाँव में चल दी ताकि दोनों माँ-बेटे साथ-साथ भोजन कर लें।
इधर माँ किसी गली में गई और उधर बोंदरु किसी दूसरी गली से घर आ गये। दरवाजा खोला और घर में भीतर कदम रखा, गली में से आवाज आई-“अलख निरंजन" | बेटा रोटी हो - तो, साधुको देदो। संत बोंदरु अन्दर गये सीके पर टोकनी में देखा, रोटी ताजी बनी हुई रखी है, एक रोटी निकाल लाए और साधु के कटोरे में डाल दी। साधु ने कहा-बेटा, एक रोटी और हो तो दे दो। बोंदरु फिर घर में गये। रोटियाँ देखी। तीन रोटियाँ बची थी। सोचा-एक रोटी दे ही दूँ, माँ को कह दूँगा-मैंने रोटी खा ली है। अब शेष रोटी तुम ही खा लो, और दूसरी रोटी भी साधु के कटोरे में लाकर डाल दी। जैसे ही वापस पलटे साधु ने फिर कहा-बेटा, एक रोटी और हो तो दे दो। संत बोंदरु फिर तीसरी रोटी भी ले आए और साधु महात्मा के कटोरे में दे दी। इतने पर भी साधु महात्मा कब मानने वाले थे। वे तो आज भक्त की भक्ति की परीक्षा ही लेना चाहते थे। बोले-बेटा....एक रोटी और हो तो दे दो। अब तो बोंदरु ने चौथी रोटी भी महात्मा को दे दी। अब साधु महात्मा चलते बने ।
साधु महात्मा के जाने के बाद ही माता राधाबाई घर आ गई। कहने लगी-बोंदरु तू कहा चला गया था। आ! चल, रोटी खा लें। बोंदरु ने कहा- माँ, मैंने तो एक साधु महात्मा आये थे उनको सभी रोटियाँ दे दी। अब । घर में आटा हो, तो फिर से रोटी बनाओं, तब खायेंगे। माँ, घर के भीतर गई और सीके पर टोकनी ढकी थाली हटाकर देखा तो चारों रोटियाँ रखी हुई दिखी। रोटी की टोकनी नीचे उतारी और बोंदरु को आवाज लगाकर कहा-बोंदरु ! यहाँ आ तो, तू कब से झूठ बोलने लगा है ? रोटियाँ तो जैसी की वैसी रखी है। बोंदरु ने सुना तो वे घर के अन्दर गये। उन्होंने भी देखा , सचमुच रोटियाँ जैसी की वैसी रखी है। संत बोंदरु ने कहाँ- माँ...मैं झुठ नहीं बोलता । सचमुच मैंने चारों रोटियाँ साधु महात्मा को दे दी थी, फिर ये क्या हुआ ? माँ ने कहा-बेटा... ये साधु महात्मा कोई और नहीं, वे तो परमात्मा ही आये थे।
इतना सुनते ही संत बोंदरु भागे, भागे और गाँव की गोलियों में भागते रहे और साधु महात्मा को ढुढ़ते रहे। लोगों से पुछते रहे। परन्तु वह अचर अगोचर भला गाँव की गलियों में कैसे मिलते ? आखिर बोंदरु थक हार कर घर आ गये और माँ की गोद में सिर रखकर आँसु बहाने लगे। कहने लगे-माँ....मैंने ऐसी कौन सी गलती की है कि जिससे भगवान के अपने घर आने पर भी, मुझसे पहिचाने नहीं गयें ? और मैं उनके चरण नहीं छू सका ? जबकि मैं केवल एक सर्वशक्तिमान, परमेश्वर वासुदेव भगवान को ही अपना स्वामी मानता हुआ, स्वार्थ और अभिमान को त्यागकर, श्रद्धा और भाव के साथ परम प्रेम से निरन्तर चिन्तन करता हूँ। माँ ने कहा-बेटा, तुझे तो किसी भी रुप में सही ईश्वर के दर्शन तो हुए । तू तो अत्यन्त भाग्यशाली है। बेटा दु:ख क्यों मनाता है ? ईश्वर हमेशा तेरे साथ हैं, तू उनकी परीक्षा में सफल हो रहा है। अवश्य तुझे दर्शन होंगे, चिन्ता न कर और माँ की आँखों में भी आँसु आगये। संत बोंदरु ने हाथ जोड़े और भगवान से प्रार्थना करने लगे-“हे प्रभु, आप परमब्रह्म, परमधाम और परम पवित्र हैं, क्योंकि आपको सब ऋणिगण सनातन दिव्य पुरुष एवं देवों के भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी कहते है। हे भगवन् ! आपके लीलामय स्वरुप को न तो देवता जानते है, न ही दानव ही। हे योगेश्वर! मैं मानव आपको निरन्तर चिन्तन करता हुआ भी कैसे जान सकता हूँ। इस प्रकार प्रभु का ध्यान करते हुए संत बोंदरु भी आँसु बहाने लगे। i laytopath
* जय संत बोंदरु बाबा *
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