ईश्वरीय चमत्कार (प्राणी मात्र की सेवा)
ग्राम नागझिरी के एक किसान गंगा स्नान के लिए जाने वाले थे, लेकिन खेत में ज्वार की फसल खड़ी थी। ज्वार में अभी-अभी भुट्टे आए थे। अभी दाने भी नहीं भरे थे, दाने भरने और दाने सुखने तक करीब एक महीना लग जाता है। उस समय सभी किसान बड़ी ज्वार ही बोते थे, वह ज्वार देव उठनी ग्यारस के बाद ही पकती थी। टोटे (पौधे) बड़े-बड़े ऊँचे होते थे तथा भुट्टे भी आधा-आधा किलो दाने के हुआ करते थे। फसल बहुत ही अच्छी थी। किसान ने सोचा कोई रखवाली करने वाला मिल जाए, जो पक्षियों को उड़ाया करे तो मेरी फसल बच सकती है और मैं तीर्थयात्रा पर जा सकुंगा। __आखिर संत बोंदरु को खेत की रखवाली के लिए एक महिने के लिए दे दिया। मजदूरी में एक मण ज्वार देने का वादा हुआ। नागझिरी (खरगोन) के आस-पास के क्षेत्र में मण एक बोरी (एक क्विंटल) को कहते है, याने एक बोरी ज्वार देने का वादा हुआ। रखवाली पर खेत रखने के बाद तो किसान निश्चिंत होकर गंगा स्नान करने अपनी पत्नी के साथ चल दिए।
उस जमाने में मोटर गाड़ी या रेल गाड़ी की सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थी। यात्रियों को बैलगाड़ी या पैदल ही यात्राएँ करनी पड़ती थी। रेल गाड़ी और बस तो शायद बनी ही नहीं थी, सो किसान भाई पैदल ही अन्य यात्रियों के साथ गंगास्नान को चल दिए। ___ इधर संत बोंदरु नित्य खेत की रखवाली करने जाने लगे। जब ज्वार के भुट्टों में नरम- नरम दाने आने लगे तो चिड़ियाओं ने भी झुण्ड के झुण्ड खेत में आना शुरु कर दिया। संत उन्हे | उड़ाते तो चिड़ियाएँ चहचहा कर उड़ती और वापस आकर भूट्टों पर बैठ जाती व नरम-नरम दानों को खाने लगती। संत ने सोचा अगर मैं यहाँ दाने नहीं खाने दूँगा तो मुझे पाप लगेगा ही और ये पक्षी कहीं दूसरे खेतों में जाकर दाने खायेंगे तथा उन लोगों का नुकसान करेंगे। अगर वे लोग भी इन पक्षियों को उड़ायेंगे तो उनको भी पाप लगेगा तथा पक्षी बेचारे दिन भर इधर से उधर उड़ते रहेंगे व भुखे ही रह जावें । क्यों न इन पक्षियों को मैं ही दाना चुगने दूँ, इससे मैं भी पक्षियों को उड़ाने के पाप से बनूंगा और अन्य लोग भी बचेंगे। ये चिड़ियाएँ यहीं चुग लेगी तासे अन्य खेतों में नहीं जावेगी, इससे उन लोगों के खेत भी बचेंगे। ऐसा ही ठीक है, समझकर संत ने चिड़ियाओं को उड़ाना बंद कर दिया और चुपचाप उनको चुगता हुआ देखने लगे। उनका कलरव मन को भाने लगा। खेत में स्थित कुँवे की पाल पर बैठकर उन पक्षियों का कलरव का आनन्द लेने लगे। कुँवे के पास एक छोटे से गड्ढे में पानी भरा हुआ था। चार-छ: चिड़ियाएँ एक साथ पानी पीने आई तो वे पानी पीने की जल्दी में झगड़ने लगगई। संत की नजर उन पर पड़ी तो झट से समस्या समझगये, उन्होंने कुँवे के आस-पास दस-बारह छोटे-छोटे गड्ढ़े बनाएँ और उनमें पानी भर दिया, अब तो चिड़ियाओं को खाना और पीना दोनों सुलभ हो गये। कभी-कभी झण्ड में बैठकर गाने लग जाती याने कलरव करती तो संत बोंदर का हृदय पक्षियों की कलरव सुनकर आनन्दीत होता रहता।
इस प्रकार संत खेत में तो रोज जाते पर खेत को पक्षियों से बचाने के लिए नहीं, बल्कि पक्षियों का आनन्दीत होकर उछलना, कुदना, फुदकना देखने के लिए और उनका कलरव गान सुनने के लिए। परिणाम ! परिणाम तो आप सब समझ ही गये होंगे कि एक महिने में जब तक किसान दाजी (निमाड़ क्षेत्र में बड़े बुजुर्गों को सम्मान के साथ दाजी (दादाजी का अपभ्रंश रुप) कहा जाता है।) तीर्थ यात्रा करके लौटे, तब तक खेत के एक भी भूटे में एक भी दाना देखने को नहीं मिलताथा। सारे भुट्टे बिनादाने के टोसा (बिनादाने का भुट्टा) होकर रह गये थे। तीर्थ यात्रा से लौटने के बाद किसान दाजी दूसरे दिन फसल देखने खेत पर गये। ज्वार को देखा तो अपना माथा पीट लिया। सम्पूर्ण खेत में घूमे फिरे, कुँवे पर गये, पूरे खेत का नजारा देखकर बहुत पछताएँ कि मैंने एक साधु स्वभाव वाले को काहे को खेत रखवाली पर दे दिया।
उसने तो चिड़ियाओं के लिए पानी पीने तक की व्यवस्था कर रखी है, उनको उड़ायेगा क्यों ? क्रोध भी बहुत आया और पछताया भी। शाम को गाँव के बुजुर्ग लोगों को गाँव की चौपाल पर इकट्ठा किया और उन पंचों को अपने खेत की जानकारी दी तथा न्याय करने की गुहार लगाई। पंचों ने सुना, विचार किया तथा बोंदरु को बुला लाने के लिए दो पंचों को उनके घर भेजा। जब संत बोंदरु चौपाल पर आ गए तो पंचों ने पुछा-क्यों भाई, बोंदरु ! क्या तुमको इस किसान दाजी ने खेत की रखवाली करने को दिया था ? संत बोंदरु ने कहा-हाँ, दिया था। पंच-क्या मजदूरी कहीं थी? संत-एक मण (एक बोरी) ज्वार देने को कहा था। पंच-फिर क्या तुमने रखवाली की थी? संत-हाँ....खेत में जाता तो नित्य था, परन्तु पक्षी नहीं उड़ा पाया। पंच-क्यों? इसीलिए तो तुमको रखवाली पर रखा था। संत-पंचों ! बात यह थी कि अगर मैं दाजी के खेत में चिड़ियाएँ उड़ाता, तो वे दूसरों के खेत में जाकर दाना चुगती और नुकसान करती, इसलिए मैंने सोचा ! क्यों न इसी खेत में उन्हें दाना चुगने दूँ ताकि दूसरों का नुकसान न हो। इधर किसान दाजी भी तो गंगा स्नान करने, पुण्य कमाने गये थे, चिड़ियाओं को उनके खेत में उड़ाकर, क्यों उनकों पाप में डालता ? इसलिए मैंने नहीं उड़ाई। उनको भरपेट खाने दिया, अगर किसान दाजी चाहे तो मेरी रखवाली की मजदूरी न दे। पंच-(किसान दाजी से)सुन लिया भाई! ये बोंदरु क्या कहता है ? सुना? किसान-सुना तो सही, पर मेरे खेत की फसल का जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई कौन करेगा? मैं, मेरे परिवार को साल भर क्या खिलाऊँगा? पंच-क्यों, भाई बोंदरु । अब क्या कहते हो? सत-हाँ मैं, किसान दाजी के खेत के नुकसान की भरपाई भी करने को तैयार हुँ। किसान दाजी बताएँ कितना नुकसान हुआ ? पंच-भाई किसान, बताओं! कितना नुकसान हुआ ? बोंदरु देने को तैयार है। किसान-पिछले साल (वर्ष) उसी खेत में ज्वार बोई थी, तो मुझे बारह मण (एक माणी) याने बारह क्विंटल ज्वार निकली थी। संत-मैं आपकी एक माणी ज्वार देने को तैयार हुँ, परन्तु पंचजानते हैं कि अभी इस समय तो मेरे पास देने को कुछ नहीं है, परन्तु मैं इसके एवज में किसान दाजी के घर काम (धाड़की मजदूरी) करके चुका दूंगा। किसान-हाँ, ठीक है, परन्तु तुमको बारह मण ज्वार के बदले बारह माह (एक वर्ष) तक नित्य मेरे यहाँ काम करना पड़ेगा। बोलो मंजुर है ? संत-हाँ, मुझे मंजुर है, परन्तु खेत की ज्वार कटाई जावे भुट्टों को दावण चलाकर दाने निकाले जायें।
उनमें जितनी भी ज्वार निकले, उतने दिन कीमजदूरी मेरे से कमलीजाए। पंच-हाँ, भाई ! बोंदरु का कहना सत्य है। तुम्हारे खेत की ज्वार को ढलवाओं (कटवाओं) लाणी करवाओं (भुट्टे कटवाओं) और खलिहान में लाकर भुट्टों का दावण चलाकर दाने निकालों ।भाई, जितने मण ज्वार निकलेगी, बोंदरु उतने महिने कम काम करेगा। "किसान-पंचों! आपने मेरा खेत नहीं देखा!! ज्वार में एक भी दाना नहीं निकलेगा। बल्कि उलटे -मुझे मजदूरों की मजदूरी देना पड़ेगी। लगभग एक मण, वह कौन देगा? संत-अगर मजदूरों को देने इतनी भी ज्वार उसमें न निकली तो मैं एक महिना और अधिक काम कर दूँगा। याने बारह महिने के बजाय तेरह महिने काम करूँगा। पंच-(हर्षित होकर) हाँ, किसान भाई, बोंदरु सही कह रहा है, अब तो ज्वार को कटवाना ही चाहिए। _इस प्रकार पंचायत का निर्णय हुआ और पंचायत बर्खास्त हो गई। सभी गाँव-पंच अपने-अपने घर चले गये। दूसरे दिन मजदूर ले जाकर किसान ने अपने खेत की ज्वार ढलवाई (पौधे कटवाये) तथा तीसरे दिन मजदूरों से लाणी करवाई (भुट्टे कटवाएँ) भुट्टों को खले पर फैलाकर उन पर बैलों से दावण चलवाई। हाँ, एक बात और बतादूँ, इस निमाड़ क्षेत्र में ज्वार ढालने की मजदूरी एक चौकी (याने चार किलो) ज्वार देते है, परन्तुलाणी करने की मजदूरी में जिस खीड़ी (टोकनी) में लाणी करते हैं याने भूट्टे रखते जाते है, अन्त में शाम को उसी खीड़ी को भरकर भुट्टे मजदूर को मजदूरी में दिये जाते है ।
जब मजदूरी चुकाने का समय आया तो सभी मजदूर भुट्टे लेने से मना कर गये और कहने लगे कि हमें तो एक-एक चौकी ज्वार ही दे देना। लेकिन एक बुढ़िया माँ थी, कहने लगी नहीं भाई मुझे तो रिवाज के मान से भुट्टे ही दे दो। मेरी किस्मत! उसमें जितने भी दाने निकलेंगे, मैं समझंगी यहीं मेरी मजदूरी है। अन्य मजदूरों ने समझाया-माँ इन भुट्टों में कुछ निकलने वाला नहीं है । लेकिन बुढ़िया माँ नहीं मानी और वह तोटोकनी भर कर भुट्टे की मजदूरी में लेकर गई। किसान ने जब भुट्टों पर दावण चलाई, उनको हवा में उड़ाकर कचरा साफ किया तो ज्वार का ढेर देखकर किसान के तो होश ही उड़ गये । मारे आश्चर्य के उससे बोला भी नहीं जा रहा था और संत बोंदर से की गई धष्ठता के लिए शर्मीन्दगी भी उठाना पड़ रही थी। किसान ने मन ही मन भगवान को याद कि;या। हाथ जोड़े और माफी माँगी। सोचने लगे संत बोंदरु ने ठीक ही कहा था, कि मैं गंगाजी पुण्य कमाने गया था, तो यहाँ क्यों चिड़ियाओं को उड़ाऊ। मैं हीं बेअक्ली हो गया था, जो संत का दिल दुखाया है। ईश्वर मुझे माफ करना। किसान ने चौकी लगाकर ज्वार को नापा। (पहिले अनाज नापते ही थे, तौलते नहीं थे।) तो किसान की ज्वार एक माणी (बारह मण) के बजाय दो माणी (चौबिस मण) निकली। शाम को किसान ने फिर उन्हीं पंचों को गाँव की चौपाल पर इकट्ठा किया (पंचायत बिठाई)। संत बोंदरु को वह स्वयं बुलाकर लाया और पंचों को ज्वार दिखाईवसब हाल सुनाया। किसान ने कहा-पंचों, मैंने सबके सामने मेरे खेत की नुकसान के लिए बोंदरु से बारहमण ज्वार का कहा था। भगवान की कृपा से वह चौबिस मण निकली । मैं आप सब पंचों से और संत बोंदरु से भी माफी माँगता हूँ, मेरे मन में स्वार्थ आगया था। मेरी बुद्धि मारी गई थी, मैं बोंदरु की भक्ति को नहीं समझ पाया था।जो मैंने उस रोज ऐसी बातें कही थी।
अब सब पंच मेरी बारहमण ज्वार निकालकरशेषज्वार संत बोंदरु को दे देवें। पंच-बोंदरु भाई, ये जो भगवान की मेहरबानी हुई है, आपकी भक्ति के कारण ही हुई है, अत: ज्वार पर तुम्हारा ही अधिकार है । ले लो। संत-ये क्या कहते हो ! पंच परमेश्वर ? मेरा अधिकार तो सिर्फ एक मण ज्वार का है, जितनी मैंने मजदूरी की है, अधिक ज्वार जो पैदा हुई, वह किसान दाजी के खेत में पैदा हुई है, उसे भला मैं कैसे ले सकताहूँ? पंच-बात सही है, भाई बोंदरु को एक मण ज्वार दे दो। मजदूरों को चुका दो। शेष बचे तो किसान की। किसान-नहीं ! मैंने पंच परमेश्वर के सामने अपने खेत में एक माणी ज्वार निकलने की बात कही थी और ये निकली चौबिस मण । बारह मण मेरी, एक मण मजदूरों की और शेष बची संत बोंदरु की। यह पंचायत चल ही रही थी कि आस-पास के रहने वाले जितने औरत-मर्दथे, जिन्होंने सुना कि किसान दाजी के यहाँ दो गुना ज्वार पैदा हुई है, सभी लोग पंचायत सुनने चौपाल पर आ गये । मजदूरों में भुट्टे ले जानी वाली माँ भी आ गई थी। कहने लगी-पंचों, मैं एक बात बताऊँ ? मैं जो मजदूरी में भुट्टे ले गई थी, उनमें ढाई चौकी ज्वार निकली। सब उपस्थित लोग सुनकर दंग रह गये और साथी मजदूर मन ही मन पछताने लगे-कि हम भी मजदूरी में भुट्टे ही ले जाते, तो अच्छा होता।
संत बोंदरु उपस्थित लोगों को समझाने लगे कि जब किसान दाजी तीर्थ यात्रा पर गंगा स्नान करने गये थे तब मैंने उनके खेत में हजारो लाखों आहतियाँ डलवाकर यज्ञ करावा पक्षियों को दाना चुगाकर व खेत में पानी घमाकर मैंने यही किया था। क्योंकि ईश्वर ने स्वयं गीता में कहा है-मैं प्राणियों की देह मे वैश्वानर अग्नि के रुप में रहकर किए गये भोजन को पचाता हँ. याने मैंने स्वयं ईश्वर को ही अन्न समर्पित कर दिया था। परन्तु बिना श्रद्धा से दिया 'गया दान, किया गया हवन, तपागया तपऔर किया गया शुभ कर्म सफल नहीं होता। वह न तो इस लोक में लाभ दायक है, न मरने के बाद परलोक में । फिर भी किसान दाजी को ईश्वर ने वे आहुतियाँ दो गुना करके वापस लौटा दी है। इसमें मेरा तो कोई कर्म है ही नहीं। ये जो किसान दाजी की ही मेहनत हैं और उनका कर्मफल । भला मैं यह ज्वार कैसे ले सकता हूँ। इधर संत बोंदरु ज्वार लेने से मना करते रहे और उधर किसान दाजी तो और ज्यादा जोर देकर इंकार करने लगे। अब शेष ज्वार का क्या होगा ? पंचों ने विचार-विमर्श कर गाँव के गरीब लोगों को उसी रात में बुलवाया और शेष बची दस मण ज्वार चार-चार, छ:-छ: चौकी करके सभी गरीबों को वितरण कर दी। उस दिन से संत बोंदरु को गाँव के लोग आदर से “बोंदरु बाबा' या केवल "बाबा" नाम से ही सम्बोधन करने लगे।
* जय संत बोंदरु बाबा *
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